Shrimad Bhagwad Geeta Chapter-10 All Shlok With Narration Lyric in Hindi

Shrimad Bhagwad Geeta Chapter-10
Bhagavad Gita Quotes In HindiShrimad Bhagawad Geeta Details
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“हर प्राणी के जीवन में परीक्षा का समय आता है, इसका अर्थ यह नहीं कि निराश हुआ जाए।”

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श्रीमद्भगवत गीता एक ऐसा ग्रंथ है जो मानव को कर्म करना सिखाता है, जो मनुष्य को धर्म की सही परिभाषा समझाता है। यह एक ऐसा पवित्र ग्रंथ है, जो आपको मोक्ष मार्ग तक ले जाता है। यूँ तो भगवत गीता सनातन हिन्दू वैदिक धरम का आधार है, परंतु आज मानव कल्याण के लिए इस पवित्र ग्रंथ के ज्ञान को दिल खोल कर अपनाने की आवश्यकता है क्योंकि यही सनातन है, और यही शाश्वत है।
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श्रीमदभगवदगीता दशम अध्याय सभी श्लोक हिंदी लिरिक्स

श्री भगवानुवाच
भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
श्रीभगवान् बोले —
हे महाबाहो अर्जुन मेरे
परम वचनको तुम फिर सुनो?
जिसे मैं तुम्हारे हितकी कामनासे कहूँगा

न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
मेरे प्रकट
होनेको न देवता जानते हैं
और न महर्षि
क्योंकि मैं सब
प्रकारसे देवताओं और महर्षियोंका आदि हूँ।

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
जो मनुष्य मुझे अजन्मा?
अनादि और सम्पूर्ण
लोकोंका महान् ईश्वर जानता है
अर्थात् दृढ़तासे मानता है?
वह मनुष्योंमें असम्मूढ़
(जानकार) है और वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है।

बुद्धिर्ज्ञानमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
बुद्धि? ज्ञान? असम्मोह? क्षमा? सत्य? दम? शम? सुख? दुःख? भव? अभाव? भय? अभय? अहिंसा? समता? तुष्टि? तप? दान? यश और अपयश — प्राणियोंके ये अनेक प्रकारके और अलगअलग (बीस) भाव मेरेसे ही होते हैं।

अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
बुद्धि? ज्ञान? असम्मोह? क्षमा? सत्य? दम? शम? सुख? दुःख? भव? अभाव? भय? अभय? अहिंसा? समता? तुष्टि? तप? दान? यश और अपयश — प्राणियोंके ये अनेक प्रकारके और अलगअलग (बीस) भाव मेरेसे ही होते हैं।

महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
।सात महर्षि और उनसे भी पूर्वमें होनेवाले चार सनकादि तथा चौदह मनु — ये सबकेसब मेरे मनसे पैदा हुए हैं और मेरेमें भाव (श्रद्धाभक्ति) रखनेवाले हैं? जिनकी संसारमें यह सम्पूर्ण प्रजा है।

एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
जो मनुष्य
मेरी इस विभूतिको और योगको तत्त्वसे जानता
अर्थात् दृढ़तापूर्वक मानता है?
वह अविचल भक्तियोगसे युक्त हो जाता है
इसमें कुछ भी संशय नहीं है।

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
मैं संसारमात्रका प्रभव (मूलकारण) हूँ? और मेरेसे ही सारा संसार प्रवृत्त हो रहा है अर्थात् चेष्टा कर रहा है — ऐसा मेरेको मानकर मेरेमें ही श्रद्धाप्रेम रखते हुए बुद्धिमान् भक्त मेरा ही भजन करते हैं — सब प्रकारसे मेरे ही शरण होते हैं।

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
मेरेमें चित्तवाले?
मेरेमें प्राणोंको अर्पण करनेवाले
भक्तजन आपसमें मेरे गुण?
प्रभाव आदिको जानते हुए
और उनका कथन करते हुए
ही नित्यनिरन्तर सन्तुष्ट रहते हैं
और मेरेमें प्रेम करते हैं।

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
उन नित्यनिरन्त
मेरेमें लगे हुए
और प्रेमपूर्वक मेरा भजन करनेवाले
भक्तोंको मैं वह बुद्धियोग देता हूँ?
जिससे उनको मेरी प्राप्ति हो जाती है।

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
उन भक्तोंपर कृपा करनेके लिये ही उनके स्वरूप
(होनेपन)
में रहनेवाला मैं उनके अज्ञानजन्य अन्धकारको देदीप्यमान
ज्ञानरूप दीपकके द्वारा सर्वथा नष्ट कर देता हूँ।

अर्जुन उवाच
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥

अर्जुन बोले —
परम ब्रह्म?
परम धाम और महान् पवित्र आप ही हैं।
आप शाश्वत?
दिव्य पुरुष? आदिदेव?
अजन्मा और विभु (व्यापक) हैं —
ऐसा सबकेसब ऋषि? देवर्षि नारद? असित?
देवल तथा व्यास कहते हैं
और स्वयं आप भी मेरे प्रति कहते हैं।

आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
अर्जुन बोले —
परम ब्रह्म? परम धाम और महान् पवित्र आप ही हैं।
आप शाश्वत? दिव्य पुरुष? आदिदेव?
अजन्मा और विभु (व्यापक) हैं —
ऐसा सबकेसब ऋषि? देवर्षि नारद? असित?
देवल तथा व्यास कहते हैं
और स्वयं आप भी मेरे प्रति कहते हैं।

सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।
न हि ते भगवन् व्यक्ितं विदुर्देवा न दानवाः।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे केशव
मेरेसे आप जो कुछ कह रहे हैं
यह सब मैं सत्य मानता हूँ।
हे भगवन् आपके प्रकट होनेको न तो
देवता जानते हैं और न दानव ही जानते हैं।

स्वयमेवात्मनाऽत्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे भूतभावन हे
भूतेश हे देवदेव हे जगत्पते हे
पुरुषोत्तम आप स्वयं ही
अपनेआपसे अपनेआपको जानते हैं।

वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
जिन विभूतियोंसे आप इन सम्पूर्ण लोकोंको व्याप्त करके स्थित हैं?
उन सभी अपनी दिव्य विभूतियोंका
सम्पूर्णतासे वर्णन करनेमें आप ही समर्थ हैं।

कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे योगिन्
हरदम साङ्गोपाङ्ग चिन्तन करता हुआ
मैं आपको कैसे जानूँ
और हे भगवन् किनकिन भावोंमें
आप मेरे द्वारा चिन्तन किये जा सकते हैं
अर्थात् किनकिन भावोंमें मैं आपका चिन्तन करूँ

विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन।
भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे जनार्दन
आप अपने योग
(सामर्थ्य) को
और विभूतियोंको विस्तारसे फिर कहिये
क्योंकि आपके अमृतमय वचन सुनतेसुनते मेरी तृप्ति नहीं हो रही है।

श्री भगवानुवाच
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
श्रीभगवान् बोले —
हाँ? ठीक है।
मैं अपनी दिव्य विभूतियोंको तेरे लिये प्रधानतासे
(संक्षेपसे) कहूँगा
क्योंकि हे कुरुश्रेष्ठ मेरी विभूतियोंके विस्तारका अन्त नहीं है।

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे नींदको जीतनेवाले
अर्जुन सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि?
मध्य तथा अन्तमें भी मैं ही हूँ
और प्राणियोंके अन्तःकरणमें
आत्मरूपसे भी मैं ही स्थित हूँ।

आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
मैं अदितिके पुत्रोंमें विष्णु (वामन)
और प्रकाशमान वस्तुओंमें किरणोंवाला सूर्य हूँ।
मैं मरुतोंका तेज
और नक्षत्रोंका अधिपति चन्द्रमा हूँ।

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
मैं वेदोंमें सामवेद हूँ?
देवताओंमें इन्द्र हूँ?
इन्द्रियोंमें मन हूँ
और प्राणियोंकी चेतना हूँ।

रुद्राणां शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
रुद्रोंमें शंकर और यक्षराक्षसोंमें कुबेर मैं हूँ?
वसुओंमें पावक (अग्नि)
और शिखरवाले पर्वतोंमें मेरु मैं हूँ।

पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे पार्थ
पुरोहितोंमें मुख्य बृहस्पतिको मेरा स्वरूप समझो।
सेनापतियोंमें स्कन्द और जलाशयोंमें समुद्र मैं हूँ।

महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
महर्षियोंमें
भृगु और वाणियों(शब्दों)
में एक अक्षर
अर्थात् प्रणव मैं हूँ।
सम्पूर्ण यज्ञोंमें जपयज्ञ
और स्थिर रहनेवालोंमें हिमालय मैं हूँ।

अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
सम्पूर्ण वृक्षोंमें पीपल?
देवर्षियोंमें नारद?
गन्धर्वोंमें चित्ररथ और
सिद्धोंमें कपिल मुनि मैं हूँ।

उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भवम्।
ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम्।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
घोड़ोंमें
अमृतके साथ समुद्रसे प्रकट होनेवाले
उच्चैःश्रवा नामक घोड़ेको?
श्रेष्ठ हाथियोंमें ऐरावत नामक हाथीको
और मनुष्योंमें राजाको मेरी विभूति मानो।

आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
आयुधोंमें
वज्र और धेनुओंमें कामधेनु मैं हूँ।
सन्तानउत्पत्तिका हेतु कामदेव
मैं हूँ और सर्पोंमें वासुकि मैं हूँ।

अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।
पितृ़णामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम्।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
नागोंमें
अनन्त (शेषनाग)
और जलजन्तुओंका अधिपति वरुण मैं हूँ।
पितरोंमें अर्यमा और,
शासन करनेवालोंमें यमराज मैं हूँ।

प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम्।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम्।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
दैत्योंमें
प्रह्लाद और गणना
करनेवालोंमें काल मैं हूँ।
पशुओंमें सिंह और पक्षियोंमें गरुड मैं हूँ।

पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
पवित्र
करनेवालोंमें वायु
और शास्त्रधारियोंमें राम मैं हूँ।
जलजन्तुओंमें मगर मैं हूँ।
बहनेवाले स्रोतोंमें गङ्गाजी मैं हूँ।

सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे अर्जुन
सम्पूर्ण सर्गोंके आदि?
मध्य तथा अन्तमें मैं ही हूँ।
विद्याओंमें अध्यात्मविद्या
और परस्पर शास्त्रार्थ करनेवालोंका
(तत्त्वनिर्णयके लिये किया जानेवाला) वाद मैं हूँ।

अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च।
अहमेवाक्षयः कालो धाताऽहं विश्वतोमुखः।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
अक्षरोंमें अकार
और समासोंमें द्वन्द्व समास मैं हूँ।
अक्षयकाल अर्थात् कालका भी महाकाल
तथा सब ओर मुखवाला धाता भी मैं हूँ।

मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
सबका हरण
करनेवाली मृत्यु
और उत्पन्न होनेवालोंका उद्भव मैं हूँ
तथा स्त्रीजातिमें
कीर्ति? श्री? वाक्? स्मृति? मेधा?
धृति और क्षमा मैं हूँ।

बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
गायी जानेवाली श्रुतियोंमें बृहत्साम और
वैदिक छन्दोंमें गायत्री छन्द मैं हूँ।
बारह महीनोंमें मार्गशीर्ष और
छः ऋतुओंमें वसन्त मैं हूँ।

द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
छल करनेवालोंमें
जूआ और तेजस्वियोंमें तेज मैं हूँ।
जीतनेवालोंकी विजय?
निश्चय करनेवालोंका निश्चय और
सात्त्विक मनुष्योंका सात्त्विक भाव मैं हूँ।

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनंजयः।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
वृष्णिवंशियोंमें वासुदेव
और पाण्डवोंमें धनञ्जय मैं हूँ।
मुनियोंमें वेदव्यास और
कवियोंमें शुक्राचार्य भी मैं हूँ।

दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
दमन करनेवालोंमें दण्डनीति
और विजय चाहनेवालोंमें नीति मैं हूँ।
गोपनीय भावोंमें मौन
और ज्ञानवानोंमें ज्ञान मैं हूँ।

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे अर्जुन
सम्पूर्ण प्राणियोंका जो बीज है?
वह बीज मैं ही हूँ
क्योंकि मेरे बिना कोई भी चरअचर प्राणी नहीं है
अर्थात् चरअचर सब कुछ मैं ही हूँ।

नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे परंतप अर्जुन
मेरी दिव्य विभूतियोंका अन्त नहीं है।
मैंने तुम्हारे सामने अपनी विभूतियोंका जो विस्तार कहा है?
यह तो केवल संक्षेपसे कहा है।

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम्।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
जोजो ऐश्वर्ययुक्त शोभायुक्त
और बलयुक्त वस्तु है?
उसउसको तुम मेरे ही तेज(योग)
के अंशसे उत्पन्न हुई समझो।

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।।

॥ श्लोक का अर्थ ॥
अथवा
हे अर्जुन तुम्हें इस प्रकार बहुतसी बातें जाननेकी क्या आवश्यकता है
मैं अपने किसी एक अंशसे सम्पूर्ण
जगत्को व्याप्त करके स्थित हूँ।

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